योग के आलोक में धर्मों की सारभूत एकता को फिर से समझिए

योग के आलोक में धर्मों की सारभूत एकता को फिर से समझिए

क्रिसमस का त्योहार दो दिनों बाद ही है। क्रिश्चियन ही नहीं,बल्कि बहुसंख्यक हिंदू से लेकर अन्य धर्मों के लोग भी जश्न मनाएँगे। दुराग्रहों से मुक्त मन को यही रास आता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम ...। दुनिया भर के सिद्ध संत प्राचीन काल से ही इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – .... सबको सन्मति दे भगवान। आज वक्त वैसा ही है। यह निर्विवाद है कि सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह तो प्रकारांतर से एक ही है।                    

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने तो 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के संस्थापक परमहंस योगानंद ने 1949 में “कैवल्य दर्शनम” पुस्तक के लिए लिखे दो शब्द में कहा था, सभी देशों औऱ सभी युगों के सद्गुरू अपने ईश्वरानुसंधान में सफल हुए हैं। निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुंचकर इन संतों ने नाम-रूपों के पीछे विद्यमान अंतिम सत्य को अनुभव किया। उनके ज्ञान और आध्यात्मिक उपदेशों के संकलन संसार के धर्मशास्त्र बन गए।

योग को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के  आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। कुरान कहता है कि कोई भी मानव समाज कभी भी एक सचेतक तथा पथ-प्रदर्शक सं वंचित नहीं रहा। जो भी आया, उसने एक ही सत्य को उद्घाटित किया। दूसरी तरफ ऋग्वेद कहता है कि सत्य बहुआयामी है। ऋषिगण इस सत्य को विभिन्न पद्धतियों से उद्घोषित करते हैं। जापानी बौद्ध लोकोक्ति के मुताबिक, जब हम पहाड़ पर चढ़ते हैं तो भले ही रास्ते अलग हों, शिखर पर पहुंचा प्रत्येक व्यक्ति एक ही चंद्रमा की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है।

सच है कि धार्मिक-आध्यात्मिक नजरिए के साथ ही योग के दृष्टिकोण से भी प्राय: सभी धर्मों में कई समानताएँ दिखती हैं। मैंने पहले के एक लेख में चर्चा की थी कि पाकिस्तान में किस तरह योग की जड़ें गहरी होती जा रही हैं। पर ईसाई, सूफी औऱ पारसी धर्मों में तो ध्यान योग का इतिहास सदियों पुराना है। “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” में विभिन्न दस्तावेजों के आधार पर इसका विस्तार से वर्णन है। क्रिसमस का मौका है। इसलिए मैं खासतौर से ईसाई मत में ध्यान और यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों से सांख्य दर्शन की समानता पर चर्चा करूंगा। इसके पहले एक अद्भुत प्रसंग की चर्चा।

झारखंड के देवघर जिले के रिखिया में परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आश्रम है। बेहद जागृत। वहां आध्यात्मिक अनुभूतियों को प्राप्त करने के लिए विदेशी साधकों की भरमार होती है। उनमें ईसाई धर्म को मानने वाले साधकों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। पच्चीस साल पूर्व मैं जब वहां पहली बार गया था तो उन विदेशियों को ओम् का जप करते देख बड़ी हैरानी होती थी। उससे भी ज्यादा हैरानी तब हुई थी, जब मैंने आश्रम के परिसर में क्राइस्ट कुटीर देखा था। सत्संग के दौरान परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बताया कि संसार में रिखिया ही एकमात्र स्थान है, जहां क्राइस्ट की कुटिया है। यह कोई गिरिजाघर नहीं है, बल्कि इसे क्राइस्ट का निवास स्थान कहना चाहिए। झारखंड धर्म परिवर्तन के लिहाज से बड़ा संवेदनशील राज्य माना जाता है। उस राज्य में ऐसा दृश्य धर्मों के बीच मूलभूत एकता का जीवंत उदाहरण था।

“स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” के मुताबिक, ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ”  महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? क्रिश्चियन देशों में योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई। “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। संशय की कोई गुंजाइश नही रह गई। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाना समय की मांग है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

 

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